महाभारत एक परिचय | भाग :- ०३ काल निर्णय

છબી
  महाभारत काल  दुनिया के महान धार्मिक-पौराणिक ग्रंथों में महाभारत काफी लोकप्रिय है. यह ऐसा महाकाव्य है, जो हजारों वर्षो के बाद भी अपना आकर्षण बनाये हुए है. यह काव्य रचना जितनी लौकिक है, उतनी ही अलौकिक भी. इसके जरिये जीवन-जगत, समाज-संबंध, प्रेम-द्वेष, आत्मा-परमात्मा के रहस्यों को समझा जा सकता है. शायद यही वजह है कि समय के बड़े अंतराल के बाद भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है. इसी महाभारत में श्रीकृष्ण के कर्म, अनुराग, युद्ध, रणनीति वगैरह के दर्शन भी मिलते हैं. अब तो श्रीभगवद् गीता को प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थानों में पढ़ाया जा रहा है. इसके घटनाक्रम और वृतांत यह जिज्ञासा पैदा करते रहे हैं कि इस काव्य का रचनाकाल क्या है. कोई इसे तीन हजार साल पुराना मानता है तो किसी की मान्यता है कि यह करीब 1400 ईपू या 950 ईपू पुरानी बात है. महाभारत के रचनाकाल पर बीते दिनों बिहार-झारखंड के मुख्य सचिव रहे विजय शंकर दुबे ने पटना के प्रतिष्ठित केपी जायसवाल शोध संस्थान में विशेष व्याख्यान श्रृंखला के तहत अपना लिखित व्याख्यान पेश किया. यह विषय इतना रोचक और दिलचस्प रहा है कि आज भी उसकी लोकप्रियता जस की तस बनी हुई है. इ

पण्डिता क्षमारावजी का जीवन परिचय



आधुनिक काल का संस्कृत साहित्य अत्यंत समृद्ध है। आधुनिक संस्कृत साहित्य को काल और विषय की दृष्टि से मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- स्वातन्त्रय पूर्व और स्वान्त्र्योत्तर । सन् 1947 ई. से पूर्व की रचनाओं में देशभक्ति, स्वतन्त्रता की आकांक्षा और उसके लिये संघर्ष के स्वर मुखर हुए हैं, भले ही वह गद्य हो पद्य हो या फिर नाटक हो । स्वतन्त्रता के बाद के साहित्य में आशा, उत्साह और आत्मसम्मान का भाव अधिक प्रखर होकर उभरा ।

आधुनिक संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में रचनाकारों के बहुमूल्य योगदान को जनसामान्य तक पहुँचाने में आधुनिक संस्कृत साहित्य के सुधी आचार्यों व समीक्षकों का योगदान और भी महत्त्वपूर्ण है। अतः आधुनिक संस्कृत साहित्य का सामन्य सर्वेक्षण हमें आधुनिक संस्कृत विद्वानों से परिचित कराता है।

 पण्डिता क्षमाराव संस्कृत वाङ्मय में नारी रचनाकार के रूप में क्षमाराव का स्थान मूर्धन्य है एवं स्तुत्य है। इनका जन्म 1890 ई. में हुआ था और मृत्यु 1953 ई. हुई। इनके पिता पंडित शंकर पांडुरंग संस्कृत के विद्वान थे। पंडिता क्षमाराव बाल्यकाल में ही अपने पिता की छत्रछाया से वंचित हो गई थी। दुर्भाग्य से तीन वर्ष की अल्प आयु में ही क्षमा को पितृ-वियोग सहना पड़ा। पिता की मृत्यु के पश्चात् क्षमा का बचपन अपनी चाची के घर घोर कष्टों और अभावों में बीता। प्रतिकूल परिस्थितियों के होते हुए भी मेधाविनी क्षमा 10 वर्ष की आयु से ही संस्कृत और अंग्रेजी में कविताएंँ लिखने लगी थी। पण्डिता क्षमाराव का सम्पूर्ण जीवन कठोर संघर्ष में व्यतीत हुआ है।

20 वर्ष की आयु में उनका विवाह प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. राघवेन्द्र राव के साथ हो गया। 1911 में पति के साथ यूरोप-भ्रमण के दौरान उन्होंने अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन भाषाओं का अभ्यास किया, पाश्चात्य संगीत, पियानो-वादन और टेनिस में प्रवीणता प्राप्त की। यूरोप की संस्कृति को निकट से जानकर अंग्रेजी भाषा में उत्तम साहित्य की रचना की। वे यूरोप के अनेक विद्वानों और साहित्यकारों के सम्पर्क में आईं। 

क्षमाराव ने अपने जीवन के हर क्षण को साहित्यसर्जन के प्रति समर्पित करते हुए एक विशाल श्रेष्ठ साहित्य की रचना की। पण्डितसमाज ने उन्हें पण्डिता’ एवं साहित्यचन्द्रिका’ की उपाधियों से विभूषित किया। उन्होंने संस्कृत के प्रसिद्ध आचार्य कवि राजशेखर की इस उक्ति को सार्थक किया कि ‘प्रतिभा स्त्री-पुरुष का भेद नहीं करती।’ 1953 में अपने पति की मृत्यु के पश्चात् 22 अप्रैल 1954 को क्षमाराव का निधन हो गया।

महात्मा गांधी के व्यक्तित्व एवं चिंतन से काफी प्रभावित थी इसी प्रभाव के कारण इन्होंने 'सत्याग्रहगीता', 'उत्तरसत्याग्रहगीता' और 'उत्तरजयसत्याग्रहगीता' इस प्रकार तीन काव्य की रचना की। 1931 से गांधी इरविन समझौता तक की घटनाओं का वर्णन प्रथम भाग 'सत्याग्रहगीता' में है। 1931 से 1944 तक की घटनाओं का वर्णन द्वितीय भाग 'उत्तरसत्याग्रहगीता' में तथा भारतीय स्वतंत्रता के स्वरूप का वर्णन तृतीय भाग 'उत्तरजयसत्याग्रहगीता' में है। एक अन्य रचना 'शंकरजीवनआख्यानाम्' जो कि 17 उल्लास में है यह 1939 में मुंबई से प्रकाशित हुई जिसमें अपने पिता शंकर पांडुरंग के जीवन चरित्र पर इन्होंने प्रकाश डाला है। पंडिता क्षमाराव की अन्य रचनाओं में से 'तुकारामचरित', 'श्रीरामचरित' तथा 'श्रीज्ञानेश्वरचरितम्' महाकाव्य है। यह तीनों ही रचनाएं महाराष्ट्र के 3 महान संतों के जीवन पर आधारित है।

काव्य में उत्तम काव्य 'मीरालहरी' नामक एक काव्य है जिसमें उन्होंने मीरा की कष्ट गाथा का वर्णन किया है। इस काव्य के माध्यम से यह ज्ञात होता है मानो पंडिता क्षमाराव ने स्वयं मीरा से एकाकार होकर यह काव्य लिखा हो। इसमें मीरा की कष्ट गाया के चित्रण से अपने निजी जीवन की व्यथा अंतर्निहित की है।

मुंबई से 1933 ईस्वी में प्रकाशित अनुष्टुप छंद में निबद्ध 'कथापञ्चकम्' में संकलित इनकी कहानियां संस्कृत की नई कथा का प्राणवान् रूप प्रस्तुत करती हैं। पंडित क्षमाराव की भाषा प्रसादमयी है। इनकी गद्यकथाओं में तत्कालीन परिस्थितियों और सामाजिक रूद्रियों से त्रस्त नारी तथा शोषित वर्ग की दुर्दशा चित्रित की गई है।

अधिकांशतः दुखांत कहानियां है, कुछ कथाएं राष्ट्रीय आंदोलनों से संबद्ध है। पंडित क्षमाराव की दो लघु पद्यात्मक रचनाएं 'शंकरजीवनाख्यानाम्' और 'विचित्रपरिषद्यात्रा' । प्रथम में अपने पिता की जीवनी प्रस्तुत की है तो दूसरे में अनंतशयन की यात्रा का संस्मरण किया है।

पंडिता क्षमाराव के साहित्य में चित्रित सामाजिक संबंध ना केवल प्रासंगिक है बल्कि आज भी जीवित हैं। पंडिता क्षमाराव के स्त्री पात्र अपने सौंदर्य और तप दोनों से ही सराहनीय हैं। क्षमाराव एक और तो नारी की अस्मिता को रेखांकित करती हैं तो दूसरी और अमर्यादित आचरण को त्याज्य भी बताती हैं। अतः कहा जा सकता है कि पण्डिता क्षमाराव आधुनिक युग में अपने वर्णन कौशल, अपनी अभिव्यक्ति शैली और अपनी विचार दृष्टि से आधुनिक समाज के प्रति, स्त्री के प्रति, देश के प्रति और राष्ट्र के प्रति प्रेरणा प्रदान करती हैं।  

  

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