महाभारत एक परिचय | भाग :- ०३ काल निर्णय

છબી
  महाभारत काल  दुनिया के महान धार्मिक-पौराणिक ग्रंथों में महाभारत काफी लोकप्रिय है. यह ऐसा महाकाव्य है, जो हजारों वर्षो के बाद भी अपना आकर्षण बनाये हुए है. यह काव्य रचना जितनी लौकिक है, उतनी ही अलौकिक भी. इसके जरिये जीवन-जगत, समाज-संबंध, प्रेम-द्वेष, आत्मा-परमात्मा के रहस्यों को समझा जा सकता है. शायद यही वजह है कि समय के बड़े अंतराल के बाद भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है. इसी महाभारत में श्रीकृष्ण के कर्म, अनुराग, युद्ध, रणनीति वगैरह के दर्शन भी मिलते हैं. अब तो श्रीभगवद् गीता को प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थानों में पढ़ाया जा रहा है. इसके घटनाक्रम और वृतांत यह जिज्ञासा पैदा करते रहे हैं कि इस काव्य का रचनाकाल क्या है. कोई इसे तीन हजार साल पुराना मानता है तो किसी की मान्यता है कि यह करीब 1400 ईपू या 950 ईपू पुरानी बात है. महाभारत के रचनाकाल पर बीते दिनों बिहार-झारखंड के मुख्य सचिव रहे विजय शंकर दुबे ने पटना के प्रतिष्ठित केपी जायसवाल शोध संस्थान में विशेष व्याख्यान श्रृंखला के तहत अपना लिखित व्याख्यान पेश किया. यह विषय इतना रोचक और दिलचस्प रहा है कि आज भी उसकी लोकप्रियता जस की तस बनी हुई है. इ

श्री गणेश महिमा । (GANESH MAHIMA)


मङ्गलं  भगवान् ढुंढि : मङ्गलं  मूषकध्वज : | मङ्गलं पार्वतिपुत्रो  मङ्गलाय तनो  गण: || 

अवधारणा एवं स्रोत

गणेश हिन्दू देवमण्डल में अग्रपूज्य दैव के रूप में जाने जाते हैं। 'गण' शब्द सर्वप्रथम वैदिक साहित्य में अभिलेखित किया गया है। सामान्य रूप से इस शब्द की व्युत्पत्ति 'गण' से मानी जाती है, जिसका अर्थ है गिनना या गणना करना। 'गण' संज्ञा का साहित्यिक अर्थ है 'समूह या झुण्ड' ' फलस्वरूप 'गणपति' शब्द का अर्थ एक सेनानायक के रूप में लिया जाता है। गणेश या गणपति को सामान्य रूप से झुण्ड के नेता या शिव के अनुचर के रूप में माना जाता है।

'गणेश' और 'गणपति' दोनों ही शब्द समान अर्थ रखते हैं, अर्थात् गुणों के नेता या मालिक गणेश से सम्बन्धित पहला नाम गणपति है, जो साहित्य में प्रयुक्त हुआ है। यह नाम पहली बार ऋग्वेद में आया है। वहाँ इसे वृहस्पति या ब्रम्हणस्पति, जो ईश्वर समूह के मालिक या मंत्रों के मालिक हैं के लिये प्रयोग किया गया है। वहाँ वृहस्पति को ज्येष्ठराज के रूप में सम्बोधित किया गया है, जिसने हाथ में एक कुल्हाड़ी पकड़ रखी है।(5) गणपति शब्द ऋग्वेद में इन्द्र के लिये भी प्रयोग किया गया है। वहाँ इन्हें मालिक) नायक के रूप में वर्णित किया पूर्व ऐतिहासिक काल में गण एक गणचिन्ह (टोटम) के रूप में मान्य था पशु का गणचिन्ह के रूप में पूजन होना इस बात का द्योतक है कि व्यवस्थित धार्मिकता विकसित होने के पूर्व ही प्रतीकात्मकता का महत्व समझा जाने लगा था। कभी-कभी गणचिन्ह माने जाने वाले पशु का मानवीकरण किया जाता था तथा उसको अत्यधिक महत्व दिया जाता था। पश्चिम पर्शिया से प्राप्त, पेरिस संग्रहालय में संग्रहीत एक मूर्ति में इस प्रकार का अंकन पाया गया है। यह अंकन 1200-1000 ई. पू. के बीच का माना जाता है। तत्व मीमांसा एवं दर्शन शास्त्र में मनुष्य द्वारा ईश्वर के मुखों तथा स्वरूपों का अपनी मानसिक योग्यता एवं कल्पनाओं के अनुसार निर्माण करने की प्रवृत्ति का विकास टोटम के मनुष्यीकरण से शुरू हुआ था।

भारतीय देव मंदिरों में अनेक प्रसिद्ध एवं सुरुचिपूर्ण आकृतियों में से एक देव की आकृति गज के समान मुख देव गणेश की है। शिव के गणों एवं व्यक्तिगत सहायकों में गणेश को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त हैं। गणेश का वाहन मूषक माना जाता है। गणेश को सामान्यतः व्यक्तिगत रूप से या कहीं-कहीं अन्य देवताओं के साथ विघ्नविनाशक का या सौभाग्य लाने वाले देव के रूप में पूजा जाता है। गणेश पूजन के प्रारम्भ एवं विकास का ज्ञान प्राप्त करने के लिये पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों के अध्ययन की आवश्यकता है।

प्राचीन आर्य जाति जो भारतवर्ष के मरुस्थलों, पर्वतों एवं जंगलों में निवास करती थी, जंगली गजों के आतंक से बहुत आश्चर्यचकित एवं आतंकित थी | किसी अन्य साधन, जो इनके आतंक को समाप्त कर सकें, की अनुपलब्धता होने पर और संभवतः इस शक्ति के साथ स्वयं को आत्मसात करने के लिये प्राचीन जनजातियों ने गज के रूप में संरक्षक देवता की पूजा प्रारम्भ की सम्भवतः गणेश पूजा का उद्भव उत्तरी एवं उत्तर पश्चिमी भारत के क्षेत्रों से हुआ है जहाँ गज बहुतायत से पाये जाते हैं। यह परंपरा इसके साथ ही दक्षिणी पूर्वी व उत्तरी क्षेत्रों में भी फैल गयी। पश्चिम भारत के पूर्वीतट, विशेष रूप से महाराष्ट्र एवं त्रावणकोर तक इसका प्रसार हुआ। इस बात के भी साक्ष्य मिलते हैं कि गणेश पूजा का सम्बन्ध गजों से है। इसके साक्ष्य पश्चिमी भारत में तान्त्रिकों एवं दक्षिणी भारत में शैवगामिकों के लेखों में उल्लिखित हैं। गजों की बढ़ोत्तरी होने के कारण (क्योंकि गज राजाओं से सम्बन्धित है) राजाओं द्वारा अपनी जनता की भलाई के लिये गज-संवेदना एवं गज ग्राह नामक कार्यक्रम सम्पन्न कराया जाने लगा।

ऋग्वेद में गणपति शब्द का प्रयोग ब्रह्मणस्पति की उपाधि के रूप में आया है। ऋग्वेद का मंत्र" "गणानां त्वां गणपतिं हवामहे जो गणेश के आह्वान के लिये प्रयुक्त होता है, ब्रह्मणस्पति का ही मंत्र है। ऋग्वेद में इन्द्र को गणपति के रूप में सम्बोधित किया गया है। तैत्तिरीय संहिता एवं वाजसनेही संहिता में पशु (विशेषतः अश्व) रुद्र के गाणपत्य कहे गये हैं। ऐतरेय ब्राह्मण) में स्पष्ट आया है कि "गणानां त्वा" नामक मंत्र ब्रह्मणस्पति को सम्बोधित है। वाजसनेही संहिता में बहुवचन (गणपतिभ्यश्च वो नमः) तथा एकवचन ( गणपतये स्वाहा ) दोनों रूपों का प्रयोग हुआ है। मध्यकाल में गणेश का जो विलक्षण रूप (हस्तिमुख, लम्बोदर, मूषक वाहन) वर्णित है, यह वैदिक संहिता में नहीं पाया जाता। वाजसनेही संहिता में मूषक को रुद्र का पशु अर्थात् "रुद्र को दिया जाने वाला पशु" कहा गया है। गृह एवं धर्मसूत्रों में धार्मिक कृत्यों के समय गणेश पूजन का कोई संकेत नहीं मिलता ) स्पष्ट है कि गणेश पूजा की परम्परा कालान्तर में प्रारंभ हुई होगी। बौधायन धर्म-सूत्र में देवतर्पण में विघ्न विनायक, वीर, स्थूल, वरद, हस्तिमुख, वक्रतुण्ड, एकदन्त एवं लम्बोदर का उल्लेख मिलता है। किन्तु यह अंश क्षेपक-सा लगता है। बौधायन गृह सूत्र व मानव गृह सूत्र में विनायक चार माने गये हैं-शालंकटक, कूष्माण्डराजपुत्र, उस्कित और देवयजन। इसमें कहा गया है कि ये दुष्ट आत्मायें हैं तथा जिन्हें पकड़ लेती हैं उन्हें तरह-तरह के शारीरिक, मानसिक व आर्थिक कष्ट देती हैं। उन्हें दुःस्वप्न आते हैं तथा कृषकों की भूमि नष्ट हो जाती हैं। मानव गृहसूत्र ने इस विनायकों द्वारा उत्पन्न बाधा से मुक्ति पाने के लिये पूजन की क्रियाओं का वर्णन किया है। ॐ) वैजवाय गृह (अपरार्क, याज्ञवल्क्य)() में भी मित, सम्मित, शालकंटक एवं कूष्माण्डराजपुत्र नामक चार विनायकों का वर्णन मिलता है। इनके द्वारा भी उन्हीं बाधाओं के उत्पन्न करने की चर्चा की गयी है जैसा कि मानव गृहसूत्र में है, तथा उन दुष्ट आत्माओं को शांत करने हेतु उनके पूजन की विधि भी दी गयी है। याज्ञवल्क्य स्मृति में चारों विनायक, एक विनायक बन जाते हैं। यह संभवतः उपनिषदों के एकेश्वरवादी विचारधारा का प्रभाव रहा होगा। इन दोनों संदर्भों से विनायक सम्प्रदाय के विकास की प्रथमावस्था का परिचय मिलता है। आरम्भ में विनायक दुरात्माओं के रूप में वर्णित हैं, जो भयंकरता एवं भाँति-भाँति का अवरोध खड़ा करते हैं। कालान्तर में शांति हेतु उनकी पूजा के विधान की परम्परा शुरू हुई। काणे महोदय का विचार है कि इस सम्प्रदाय में रुद्र के भयंकर स्वरूपों एवं आदिवासी जातियों के धार्मिक कृत्यों का समावेश हो गया। याज्ञवल्क्य स्मृति में विनायक सम्प्रदाय के कालान्तरीय स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। विनायक को यहाँ पर गणों के स्वामी के रूप में ब्रह्मा एवं रुद्र द्वारा नियुक्त दर्शाया गया है। उसे न केवल अवरोध उत्पन्न करने वाला प्रत्युत मनुष्य के क्रिया संस्कारों में सफलता देने वाला कहा गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति में विनायक के चार नाम हैं- मित, सम्मित, शालकंटक एवं कूष्माण्ड राजपुत्र उनकी माता का नाम है अम्बिका विश्वरूप व अपराक) ने भी विनायक के चार नाम ही बताये हैं। किन्तु मिताक्षरा ने शालकंटक एवं कूष्माण्डराजपुत्र के दो-दो भागों में तोड़कर छह नाम गिनाये हैं- मित, सम्मित, शाल, कटकट, कूष्माण्ड एवं राजपुत्र ) अतः यह कहा जा सकता है कि गणेश वैदिक देवों की पंक्ति में किसी देशोद्भव जाति से आये और रुद्र (शिव) के साथ जुड़ गये ।) याज्ञवल्क्य ने विनायक की प्रसिद्ध उपाधियों जैसे एकदन्त, गजानन, लम्बोदर आदि की चर्चा नहीं की है।

गणपति संबंधी विचार के विकास का अगला चरण महाभारत के प्रारंभिक भागों में तुलनात्मक रूप से प्राप्त होता है। वनपर्व ) एवं अनुशासनपर्व में वर्णित विनायक मानवगृह सूत्र के विनायक के समान ही हैं। महाभारत में एक स्थल पर विनायक को अमैत्रीपूर्ण, दुर्गुण, दैत्य, भूत, राक्षस व पिशाच के रूप में वर्णित किया गया है। उनकी संख्या दो से अधिक बतायी गयी है। आगे यह भी वर्णित है कि ये विनायक मनुष्य के कार्यों में बाधा उत्पन्न करते हैं तथा आवश्यक रीतियों से पूजा करने पर वे संतुष्ट भी हो जाते हैं महाभारत में एक स्थान पर विनायक को 'गणेश्वर' की उपाधि से प्रतिलक्षित किया है तथा यह भी उल्लिखित है कि ये गणेश्वर विनायक समस्त ब्रह्मांड को नियंत्रित करते हैं। बौधायन गृहशेष सूत्र में विनायक की आराधना के लिये भिन्न ढंग अपनाया है और उन्हें भूतनाथ, हरितमुख, विघ्नेश्वर कहा है एवं 'अपूप' तथा 'मोदक' की आहुतियों की चर्चा की है। स्पष्ट है कि याज्ञवल्क्य की अपेक्षा बौधायन मध्यकाल के धर्मशास्त्रकारों के अधिक समीप लगते हैं। इन उल्लेखों के अतिरिक्त आधुनिक स्मृतियों में गणेश की पूजा परम्परा का उल्लेख मिलता है जहाँ उन्हें मातृकाओं के साथ पूजा जाता है। गोमिल स्मृति के अनुसार सभी कृत्यों के आरंभ में गणाधिप के साथ मातृका की पूजा होनी चाहिये। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि ईसा की पाँचवीं एवं छठीं शताब्दी के उपरान्त ही गणेश एवं उनकी पूजा से सम्बन्धित सभी प्रसिद्ध विशिष्टताएँ स्पष्ट हुई होंगी । 
गणेश से संदर्भित मुद्राशास्त्रीय एवं अभिलेखीय साक्ष्य 
कुषाण शासक हुविष्क (111-138 ई.) के काल के दो सिक्के प्राप्त हैं, जिन पर ब्राह्मी में 'गणेश' शब्द उत्कीर्ण है। उसमें एक आकृति को धनुष की प्रत्यंचा खींचे हुये अंकित किया गया है। इस आकृति को शिव से समीकृत किया गया है। इन सिक्कों के माध्यम से विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि 'गणेश' शब्द कुषाण काल में गजमुखी देव के लिये नहीं प्रयुक्त होता था।) गुप्तकालीन सिक्कों में लक्ष्मी, विष्णु, वरुण, दुर्गा एवं कुमार या कार्तिकेय का चित्रांकन तो प्राप्त होता है किन्तु गणेश का अंकन अभी तक प्राप्त सिक्कों में कही भी उपलब्ध नहीं हैं।

नागमणिका ( दूसरी पहली शताब्दी ई. पू.) के नानाघाट शिलालेखों में विभिन्न देवों का उल्लेख प्राप्त होता है, जैसे धम्र, इन्द्र, संकर्षण वासुदेव, सूर्य, चन्द्र, चारों लोकपाल, यम, कुबेर, वरुण और वायु किन्तु गणेश का उल्लेख यहाँ नहीं है। वस्तुतः 300 ई. तक के ब्राह्मी शिलालेखों में गणेश या विनायक का कोई संदर्भ नहीं मिलता है। प्रारंभिक गुप्त शासकों के) अभिलेखों में गणेश, गजपति या विनायक का कोई उल्लेख नहीं है। विष्णु कुन्डिन शासक माधववर्मन (छठीं शताब्दी) के वेलुपुरु के अभिलेख में दन्तिमुख स्वामी (गणेश) की प्रतिमा स्थापना एवं विनायक पूजा का उल्लेख प्राप्त होता है। यह विनायक का सर्वप्रथम अभिलेखीय साक्ष्य है। भास्करवर्मन के सिलहर (बांग्लादेश) के आठवीं शताब्दी के अभिलेख में गणेश का अप्रत्यक्ष संदर्भ प्राप्त होता है। भास्करवर्मन) के एक अन्य ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण लेख में गणेश का उल्लेख हुआ है जिसमें उन्हें अगणित गुणों से युक्त, कलियुग को समाप्त करने के लिये जन्म लेने वाले तथा गजमुखी स्वरूप का कहा गया है। सकराई (जयपुर) के 822 ई. के अभिलेख में गणेश का उल्लेख प्राप्त होता है। राजस्थान में जोधपुर के पारा घटियाले " के स्तंभ पर गणेश की चार प्रतिमायें हैं, जो चारों दिशाओं में अंकित हैं। इस अभिलेख का प्रारंभ विनायक के सम्बोधन से किया गया है। इसकी तिथि 862 ई. मानी गयी है।

अनेक महत्वपूर्ण विदेशी यात्रियों के विवरणों में गणेश का उल्लेख प्राप्त नहीं होता 7वीं शताब्दी में भारत आने वाले त्संग एवं इत्सिंग दोनों के विवरण में गणेश या गजपति की चर्चा नहीं हुयी है। किंतु 10-11वीं शताब्दी में भारत आये विदेशी यात्री अल्बरुनी ने विनायक का उल्लेख किया है। अल्बरुनी के अनुसार मयूर पर सवारी करने वाले स्कंद के पिता महादेव (शिव) है, जबकि मनुष्य के शरीर पर गजशीर्ष धारण करने वाले विनायक, ब्रह्मा के पुत्र हैं। विनायक को अल्बरुनी ने सप्तमातृकाओं से भी सम्बद्ध कहा है ।
मूर्तिकला के आधार पर गणेश की प्राचीनता

गणेश का कला के क्षेत्र में जो प्रारंभिक स्वरूप प्राप्त होता है वह द्विभुजी गणेश का है। उत्तर भारत गणेश की उपस्थिति तीसरी से पाँचवीं शताब्दी के बीच शुरू हो गयी थी जबकि दक्षिण भारत में चौथी शताब्दी में यत्र तत्र तथा क्रमबद्ध रूप में उत्तर पल्लव काल से मूर्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि 7वीं शताब्दी के अंत से 8वीं शताब्दी के प्रारंभ तक गणेश की प्रतिमायें दक्षिण भारत में प्राप्त होने लगी थी। द्विभुजी गणेश का स्वरूप, उनके ग्राम देवता व स्थानीय पूज्य देव होने की परम्परा को प्रतिलक्षित करता है जबकि 5वीं शताब्दी के पश्चात् वे बहुभुजी स्वरूप में प्रदर्शित होने लगे, जो उनके पौराणिक देव स्वरूप को भी परिलक्षित करता है।

गांधार कला शैली में शिव पार्वती, स्कंद और षष्टी (Sasti) का अंकन तो हुआ है, किन्तु गणेश पूर्णतया अनुपस्थित हैं। भारत के बाहर अफगानिस्तान में सर्वप्रथम गणेश की द्विभुजी मूर्ति प्राप्त हुयी है जो काबुल के पास गर्डेज में स्थित थी। उसका काल 4-5वीं शताब्दी माना गया है।

प्रारंभ में गणेश को मंदिर मूर्तिकला में उच्च स्थान नहीं प्राप्त था ) वस्तुतः वह महत्वपूर्ण नहीं थे। उन्हें शिव के अनुचर के रूप में, नवग्रह के बाद, सप्तमातृकाओं के सहचर या शिव की पौराणिक कथाओं के साथ दर्शाया गया है। गणेश की मूर्ति के गर्भग्रह में स्थापित होने तक का पूरा विकास क्रम मंदिरों के स्थापत्य में दिखायी देता है। प्रारंभ में गणेश मंदिरों के मुख्यार पर, फिर मुख्य मण्डप, महामण्डप, अर्द्धमण्डप, रथिका पर तत्पश्चात् मंदिरों के सहस्तम्भों में पार्षद देवों के साथ दर्शाये गये। बाद में गणेश मुख्य गर्भगृह पार्षद देवताओं के साथ मंदिर में स्थापित हुये। यह उनके विकास क्रम का दूसरा चरण था, जिसका काल 5वीं 10वीं शताब्दी तक माना गया है। )

मूर्तियों के विकास के इस चरण में वे तांत्रिक देव के रूप में उभर कर आये। उन्हें उनकी शक्तियों, सिद्धि व बुद्धि के साथ दर्शाया गया है। उत्तर भारत में तांत्रिक गणेश का सर्वप्रथम दर्शन झूमरा से प्राप्त मूर्ति में होता है जिसमें उन्हें शक्ति के साथ दिखाया गया है। यह गाणपत्य सम्प्रदाय के प्रारंभिक चरण को रेखांकित करता है)
गणेश को उनके वाहन के साथ प्रारंभ में नहीं दर्शाया गया है। 10वीं 11वीं शताब्दी के आस-पास उन्हें मूषिका या चूहे के वाहन के साथ दर्शाया गया। यह गणेश के विकास का अगला चरण प्रदर्शित करता है। इस चरण में वे विशिष्ट वाहन के साथ प्रदर्शित हुये, जिस कारण उन्हें ब्राह्मण देवों के वर्ग में रखा गया। स्पष्ट है कि गणेश ने पौराणिक देवमण्डल के स्थान को धीरे-धीरे प्राप्त किया। 8वीं से 12वीं शताब्दी तक का विकास चरण उन्हें गर्भगृह के मुख्य देव तक पहुँचाता है। यह सिद्ध करता है कि इस काल तक गणेश समाज में मुख्यदेव के रूप में स्थापित हो चुके थे।
वेदों में गणेश

भारतीय विचारकों, इतिहासकारों ने अनेक तर्क-वितर्क के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला है कि गणेश वैदिक देवता नहीं हैं। एलिस गेटी के अनुसार तैत्तरीय आरण्यक में 'दंतिन' शब्द आराधना गजमुखी देव के लिये प्रयुक्त हुआ है। कुछ विद्वानों का कथन है कि रुद्र, शिव और गणेश मूलतः एक ही हैं। लुइस रिनॉव विद्वान ने यजुर्वेद की मैत्रायणी संहिता में दिये गये साक्ष्यों से गणेश की वैदिक उत्पत्ति माना है। हेराज ) के अनुसार ऋग्वेद में सर्वप्रथम गणपति शब्द वृहस्पति के लिये प्रयुक्त हुआ है जो कि गणों के ईश हैं। उनका यह भी मानना है कि दंतिन के संदर्भ में तैत्तरीय आरण्यक में प्रयुक्त शब्द गणपत के लिये है। कोर्टराइट के अनुसार गणपति दंतिन और वक्रतुण्ड के वैदिक और पौराणिक संदर्भ ऐतिहासिक उत्पत्ति की दृष्टि से उपयुक्त साक्ष्य नहीं हैं। जबकि पद के साहित्य गणेश की उत्पत्ति का सूत्र इन्हीं संदर्भों से जोड़ते है। यह महत्वपूर्ण है कि गणेश पूजन की उत्तरकालीन परम्परा गणेश की प्राचीनता सिद्ध करने के लिये उन्हें वैदिक साहित्य से जोड़ती है तथा वैदिक देवसमूह में प्रतिष्ठित करती है।

(i) ऋग्वेद में गणेश

ऋग्वेद II.23.1, यजुर्वेद, कृष्ण यजुर्वेद, तैत्तिरीय संहिता 23.143 एवं काठक संहिता 10.12.44 में 'गणपति' शब्द का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद तथा अन्य ग्रन्थों में उल्लिखित है कि गणपति सेवकों के देव,बुद्धिमानों में बुद्धिमान, वृहस्पति एवं ज्ञानी ब्राह्मणों में प्रमुख है। ऋग्वेद में इस मंत्र के द्वारा ब्रह्मणस्पति को सम्बोधित किया गया है। काठक संहिता में इसके द्वारा अग्नि एवं विष्णु को सम्बोधित किया गया है। तैत्तिरीय संहिता) में इस मंत्र का उच्चारण विशिष्ट सम्मान प्रदान करने के लिये किया गया है।

इसमें से किसी भी मंत्र का प्रयोग शास्त्रीय गणेश, गणपति या विनायक को सम्बोधित करने के लिये नहीं हुआ है।

ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित "गणानां त्वा गणपतिं हवामहे" की व्याख्या ब्रह्मणस्पति, जो कि वृहस्पति के रूप में पहचाने जाते हैं, को सम्बोधित करते हुये की गयी है। शतपथ ब्राह्मण में गणपति शब्द 'अश्व' के लिये प्रयुक्त हुआ है, जो देवताओं को स्वर्ग ले जाता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि किसी भी मध्यकालीन स्मृतिकार ने इस मंत्रों को शास्त्रीय गणपति या गणेश से सन्दर्भित करते हुये प्रस्तुत नहीं किया है।

(ii) यजुर्वेद में गणेश

मैत्रायणी संहिता) में एक मंत्र है जो स्पष्ट रूप से शास्त्रीय गणपति को सन्दर्भित करता है। इस मंत्र में 11 गायत्री हैं जो विभिन्न देवताओं को सम्बोधित करती हैं। चौथी गायत्री में उल्लिखित मंत्र में गणेश का नाम है हस्तीमुख (गज मुखी) जो क्लासिकल गणेश, गज के सिर वाले देव की ओर इंगित करता है।

यह मंत्र केवल पाण्डुलिपि में ही मिलता है एवं कृष्ण यजुर्वेद के किसी अन्य रूपान्तरण जैसे तैत्तिरीय संहिता, काठक संहिता एवं कपिस्टल संहिता में नहीं प्राप्त होता । यह शुक्ल यजुर्वेद के रूपान्तरण (कण्व मध्यान्दिन) में भी नहीं है। यह भी महत्वपूर्ण है कि पाण्डुलिपि में दन्ति गायत्री का एवं आनंद आश्रम के रूपान्तरण में गणेश गायत्री का गजमुखी ईश्वर के रूप में वर्णन है। 

(iii) अथर्ववेद में गणेश

अथर्ववेद में अनेक मंत्र हैं जो विभिन्न आसुरीय एवं ईश्वरीय प्रवृत्ति के देवों को वर्णित करते हैं। ये हैं मित्र, विष्णु प्रजापति, इन्द्र, वृहस्पति आर्यमन वरूण, विवासवेन्त, उत्पतास, उत्कास, राहु, धूमकेतु, रुद्र, वासुस, आदिव्यास इत्यादि नामों से सम्बोधित किये जाते हैं। लेकिन गणेश, गणपति या विनायक को वर्णित नहीं किया गया है।

गणेश एवं वैदिक रीति-रिवाज

यह रेखांकित करना महत्वपूर्ण हो सकता है कि गणेश, विनायक या गणपति को वैदिक रीति-रिवाजों में कोई स्थान नहीं दिया गया है।
शान्ति क्रिया में विशेष रूप से असुर को परास्त करने के लिये, ईश्वर की उपासना की जाती है। इन वैदिक शान्ति क्रियाओं में गणेश, विनायक या गणपति का कोई स्थान नहीं है। यह क्रियाएँ विभिन्न वैदिक देवों जैसे इन्द्र ब्रह्म, रुद्र, वासुस, आदित्य, सोम, वृहस्पति, वरुण, विष्णु, राहु, केतु आदि को सम्बोधित करके की जाती थीं | (2)

वैदिककालीन रीति-रिवाजों एवं शान्ति क्रियाओं में गणेश या गणपति की अनपुस्थिति इस बात की द्योतक है या यह साक्ष्य प्रस्तुत करती है कि गणेश वैदिक देव नहीं हैं। मैत्रायणी संहिता में वर्णित गणेश गायत्रियाँ मात्र प्रक्षिप्त अंतर्वेशित अंश हैं। 
पुराणों में गणेश

पुराणों में गणेश की उत्पत्ति के संबंध में अनिर्णय की स्थिति है। ब्राह्मण पुराण) के अनुसार किसी भी संस्कार की पूर्ति के लिये गजानन का पूजन किया जाना आवश्यक होता है। वे किसी कार्य के पूर्ण होने या इच्छाओं की पूर्ति के लिये, जैसे प्रत्यय एवं जन्म के संस्कार, यात्रा, वाणिज्य, गुरु एवं देवों के पूजन के संस्कार एवं संकट में पूजे जाते हैं। यह कहा गया है कि गणेश का पूजन कष्ट के समय में कर्मकाण्डों की सिद्धि में सफलता दिलाता है और इसमें भी सन्देह नहीं है कि गणेश सभी के कष्टों को दूर करने व सफलता दिलाने में सहायक हैं।

मत्स्य पुराण" कहता है कि गजमुखी विनायक सम्पन्नतादायक व बुद्धिदायक हैं। वह सुझाव देता है कि महादान का प्रारम्भ विष्णु, शिव व विनायक के पूजन से करना चाहिये। इस पुराण में उल्लेख है कि मंदिर में गणेश की मूर्ति की स्थापना शुभ मानी जाती है। इसमें शिव की बायीं ओर निर्मित पार्वती के पास गणेश की मूर्ति बनाने का निर्देश दिया गया है।

लिंग पुराण में गजमुखी विनायक को दैत्यों के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने के लिये जन्मित बताया जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में गणेश को शिव एवं पार्वती के पुत्र के रूप में एवं विघ्नविनाशक के रूप में सूर्य, विष्णु, शिव, अग्नि तथा दुर्गा से पहले पूजनीय कहा गया है। वाराह पुराण" यह बताता है कि गजमुखी विनायक बुरे कर्म में बाधा उत्पन्न करने के लिये जन्मित हैं। प्रस्तुत पुराण यह भी उद्घोषणा करते हैं कि विनायक को आराधना में प्राथमिकता मिलनी चाहिये अन्यथा वह कार्य की सफलता को नष्ट कर देते है।

स्कन्द पुराण" में बताया गया है कि गणपति मनुष्य को मोक्ष के मार्ग से विमुख करता है। इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि गणेश मनुष्य प्रजाति को इस लोक में ही रखता है, उसको मुक्ति के मार्ग पर नहीं जाने देता यह स्पष्ट रूप से स्कन्द पुराण 7.1.37 में वर्णित किया गया है, जहाँ यह बताया जाता है कि गणेश की उत्पत्ति इसीलिये की गयी है कि वह मनुष्य प्रजाति को दैवलोक में प्रवेश करने से रोकें। दैवलोक मृत्युलोक के जीवों से अत्यधिक भर गया है। गणेश विशेष रूप से स्त्रियों, म्लेच्छ, शूद्र एवं पापियों को रोकें जो सोमेश्वर या सोमनाथ की कृपा से स्वर्ग में प्रवेश पा लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप यज्ञ, तप, ज्ञान, स्वाध्याय एवं व्रतों को प्रमुखता नहीं मिलती। शिव भी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि वह भी अपने भक्तों को स्वर्ग में प्रवेश से नहीं रोक सकते। पार्वती ने अपने शरीर को रगड़ कर एक गजेन्द्र का निर्माण किया और घोषणा की कि यह सभी के लिये बाधाओं का निर्माण करेगा और उनको महान मोह से भर देगा- मोहनामाहिताविस्ता । गौतम महात्म्य, जो ब्रह्म पुराण का उत्तरी योग है, के अनुसार विनायक संस्कारों के सफल होने में बाधा उत्पन्न करते हैं। सफलता के लिये उनका पूजन आवश्यक

अग्नि पुराण में विनायक को एक दुष्ट आत्मा के रूप में वर्णित किया गया है जिसे मनुष्य के कार्य में बाधा डालने के लिये उत्पन्न किया गया है। अग्नि पुराण निर्देशित किया है कि सफलता प्राप्त करने के लिये गणपति का पूजन अत्यंत आवश्यक है।

नारद पुराण के अनुसार, विनायक को गणों के नेता के रूप में रुद्र, ब्रह्मा एवं शिव द्वारा नियुक्त किया गया है। शिव पुराण के अनुसार गणेश का उचित प्रकार से किया गया पूजन सभी तरह की सफलता दिलाता है तथा बाधाओं को दूर भी करता है। पद्म पुराण ने गणेश को सर्वसिद्धिकारक के रूप में वर्णित किया है अर्थात् वह सभी सफलतायें प्राप्त कराता है, सभी विघ्नों का विनाश करने वाला है। 

बौद्ध धर्म में गणेश

बौद्ध धर्म में छठीं शताब्दी तक गणेश की पूजा परम्परा स्वीकृत हो चुकी थी। पश्चिमी घाट के बौद्ध गुफा स्थापत्य में गणेश के अंकन के अनेक साक्ष्य प्राप्त होते हैं . यह उल्लेखनीय है कि चीन में कुंग सीयेन नामक स्थल पर पर स्थित बौद्ध मंदिर में, जिसका काल 531 ई. माना जाता है, गणपति के चिंतामणि स्वरूप का अंकन प्राप्त होता है।

चीनी बौद्ध धर्म की परम्परा में गणेश का संबंध नाग, हस्ति, वायु आदि देवताओं के साथ प्राप्त होता है। बौद्ध परंपरा में गणपति से सम्बन्धित साहित्यिक सन्दर्भ आठवीं शताब्दी के बाद मिलने प्रारंभ हो जाते हैं। दुर्भाग्यवश नालंदा विक्रमशिला आदि में सुरक्षित बौद्ध पाण्डुलिपियाँ मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट कर दी गयी। तिब्बत, नेपाल व चीन में जो बौद्ध साहित्य सुरक्षित बचा है उनसे बौद्ध परम्परा में गणपति के महत्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। तिब्बती परम्परा में कम से कम तीरा ग्रन्थ निर्विवाद रूप से गाणपत्य ग्रन्थ माने जाते हैं। इनमें से पन्द्रह का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में विल्किसन द्वारा किया जा चुका है।

यद्यपि तिब्बती परम्परा के इन गाणपत्य ग्रन्थों का काल निर्धारण दुष्कर कार्य है तथापि इनके मूल रचयिता या अनुवादकों के नाम के आधार पर इन्हें 8वीं-11वीं शताब्दी के बीच रखा जाता है। इनमें अधिकांश नाम भारत के प्रसिद्ध बौद्ध आचार्यों के हैं, जैसे अमोघवज ( 8वीं शताब्दी), दीपंकर श्रीज्ञान (11वीं शताब्दी) नालन्दा के नागार्जुन (7वीं 8वीं शताब्दी), कोशल के वैरोचन तथा गया के गयाधन (दोनों 11वीं शताब्दी) आदि । तिब्बती परम्परा के इन ग्रन्थों में नालन्दा और विक्रमशिला के महाविहारों में प्रचलित धार्मिक आस्थाओं व परम्पराओं पर प्रकाश पड़ता है।

यह उल्लेखनीय है कि इनमें से कुछ बौद्ध गाणपत्य ग्रन्थों में गणपति की पूजा से पहले अविलोकितेश्वर, वज्रडाकिनी, वज्रपाणि या सभी बुद्ध व बोधिसत्वों की पूजा परम्परा के प्रभाव प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत अन्य ग्रन्थों में केवल गणपति की प्रतिमा और उनके मण्डल की रचना के विषय में विस्तृत विवरण मिलता है। इसी सन्दर्भ में गणेश की पूजा विधि, मंत्र, अनुष्ठान व उनकी शक्तियों पर प्रकाश डाला गया है। बौद्ध परम्परा में भी गणपति की पूजा विघ्नहर्ता तथा मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले देवता के रूप में प्राप्त होती है। गणपति को सिद्धि, बुद्धि और करुणा का देवता बताया गया है। तिब्बती बौद्ध ग्रंथ, बौद्ध गणपति तथा ब्राह्मण परम्परा के विनाशकारी देवता विनायक के बीच भेद स्थापित करते हैं। मानवगृह सूत्र में विनायक की शांति के लिये जो मंत्र या अनुष्ठान प्राप्त होते हैं, उन्हीं में कुछ परिवर्तन के साथ उनका उल्लेख 'विनायक ग्रह निर्मोचन नामक तिब्बती बौद्ध ग्रन्थ में प्राप्त होता है।

बौद्धों की तांत्रिक परम्परा से जुड़े गणपति के व्यक्तित्व के दो स्वरूप दिखायी देते हैं- रौद्र स्वरूप वाले देव और शांत व करुण व्यक्तित्व वाले देव गणपति के रौद्र स्वरूप के लक्षण भैरव शिव के अनुरूप बताये गये हैं। उन्हें मुण्डमाल धारण किये हुये, वज्र लिये हुये, रक्त या नील वर्ण का बताया गया है। शांत स्वरूप वाले गणेश के व्यक्तित्व में बोधिसत्व अविलोकितेश्वर का स्पष्ट प्रभाव दिखायी देता हैं। उन्हें परमदयालु या महाकरुणा का देवता कहा गया है। बोधिसत्व की कल्पना बौद्ध परम्परा में एक ऐसे देवता के रूप में प्राप्त होती है जो अपनी दया व करुणा से मानव की समस्त आकांक्षाओं को परिपूर्ण करते हैं। बौद्ध सन्दर्भ में प्राप्त होने वाले गणपति के ऊपर सभी प्रकृति का आरोपण किया गया है और उन्हें अविलोकितेश्वर का ही प्रगट स्वरूप बताया गया है। एक मंत्र में गणपति को श्वेतवर्णी तथा चतुर्भुजी बताया गया है। इनके सिर पर लक्षण के रूप में अमिताभ की मूर्ति होने का भी सन्दर्भ प्राप्त होता है। गणपति के इस संयुक्त स्वरूप में भैरव शिव और बोधिसत्व अविलोकितेश्वर दोनों के व्यक्तित्व का समन्वय है। इस परम्परा का प्रचार जापान में भी बौद्ध धर्म के सन्दर्भ में हुआ तथा जापानी परम्परा में इसी प्रकार के संयुक्त स्वरूप वाले गणपति को कांगीटेन (Kangi-Ten) कहा गया है। )

विद्वानों के अनुसार गणपति के इस प्रकार के स्वरूप में बौद्ध परम्पराओं के समन्वय सामंजस्य व सह अस्तित्व पर प्रकाश पड़ता है। 36/343 साहित्य में बुद्ध व शिव का एकीकरण किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि आगे चलकर गणपति का सामंजस्य बुद्ध व बोधिसत्व के साथ किया जाने लगा। बहुसंख्यक साक्ष्य से सूचना मिलती है कि गणेश को शुद्ध बौद्ध देवता के रूप में मान्यता प्राप्त थी। गैटी वर्मा से प्राप्त अनेक गणपति प्रतिमाओं का उल्लेख किया है जिनमें उनकी मुद्रायें व लक्षण बुद्ध मूर्तियों के समान हैं).

बौद्ध परम्परा का गाणपत्य साहित्य पालराजवंश के काल से सम्बन्धित है जो कि भारत में बौद्ध धर्म का अंतिम रचनात्मक काल माना जाता है। इस काल में अनेक सामाजिक परिवर्तन हुये। भक्ति तथा तंत्र के प्रभाव से बौद्ध व ब्राह्मण धर्म के सम्प्रदायों ने प्रचलित लोकधर्मी विश्वासों व परम्पराओं को स्वयं में समायोजित किया। गणपति समन्वय के सर्वोत्तम प्रतीक दिखायी देते हैं। गणपति में ब्राह्मण, बौद्ध तथा प्रचलित विश्वास इन तीनों धाराओं का बड़ा सहज समन्वय हुआ। इन्हें धार्मिक सामंजस्य का ऐसा प्रतीक कहा जा सकता है जिसने शास्त्रीय परम्परा और लोक परम्परा के मध्य सेतु का कार्य किया। बौद्ध साक्ष्यों से भी यह स्पष्ट होता है कि बदली हुई सामाजिक परिस्थितियों में गणेश को प्रधान देवता बनाकर तत्कालीन धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये गाणपत्य सम्प्रदाय को प्रतिष्ठा मिली। 

ટિપ્પણીઓ

Unknown એ કહ્યું…
Nice information 👌👍👏
Unknown એ કહ્યું…
Very good information for Ganpati bapa
Unknown એ કહ્યું…
Thank you for this kind information.
Jay ganesh .

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