महाभारत एक परिचय | भाग :- ०३ काल निर्णय

છબી
  महाभारत काल  दुनिया के महान धार्मिक-पौराणिक ग्रंथों में महाभारत काफी लोकप्रिय है. यह ऐसा महाकाव्य है, जो हजारों वर्षो के बाद भी अपना आकर्षण बनाये हुए है. यह काव्य रचना जितनी लौकिक है, उतनी ही अलौकिक भी. इसके जरिये जीवन-जगत, समाज-संबंध, प्रेम-द्वेष, आत्मा-परमात्मा के रहस्यों को समझा जा सकता है. शायद यही वजह है कि समय के बड़े अंतराल के बाद भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है. इसी महाभारत में श्रीकृष्ण के कर्म, अनुराग, युद्ध, रणनीति वगैरह के दर्शन भी मिलते हैं. अब तो श्रीभगवद् गीता को प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थानों में पढ़ाया जा रहा है. इसके घटनाक्रम और वृतांत यह जिज्ञासा पैदा करते रहे हैं कि इस काव्य का रचनाकाल क्या है. कोई इसे तीन हजार साल पुराना मानता है तो किसी की मान्यता है कि यह करीब 1400 ईपू या 950 ईपू पुरानी बात है. महाभारत के रचनाकाल पर बीते दिनों बिहार-झारखंड के मुख्य सचिव रहे विजय शंकर दुबे ने पटना के प्रतिष्ठित केपी जायसवाल शोध संस्थान में विशेष व्याख्यान श्रृंखला के तहत अपना लिखित व्याख्यान पेश किया. यह विषय इतना रोचक और दिलचस्प रहा है कि आज भी उसकी लोकप्रियता जस की तस बनी हुई है. इ

चतुर्मास (CHATURMAS MAHIMA)

भगवान् विष्णुके शयन करनेपर चातुर्मास्यमें जो कोई नियम पालित होता है, वह अनन्त फल देनेवाला होता है । अतः विज्ञ पुरुषको प्रयत्न करके चातुर्मासमें कोई नियम ग्रहण करना चाहिये । भगवान् विष्णुके संतोषके लिये नियम, जप, होम, स्वाध्याय अथवा व्रतका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। जो मानव भगवान् वासुदेवके उद्देश्य से केवल शाकाहार करके वर्षाके चार महीने व्यतीत करता है, वह धनी होता है। जो भगवान् विष्णुके शयनकालमें प्रतिदिन नक्षत्रों का दर्शन करके ही एक बार भोजन करता है, वह धनवान्, रूपवान् और माननीय होता है। जो एक दिनका अन्तर देकर भोजन करते हुए चौमासा व्यतीत करता है, वह सदा वैकुण्ठधाममें निवास करता है । भगवान् जनार्दनके शयन करनेपर जो छठे दिन भोजन करता है, वह राजसूय तथा अश्वमेधयज्ञोंका सम्पूर्ण फल पाता है। जो सदा तीन रात उपवास करके चौथे दिन भोजन करते हुए चौमासा बिताता है, वह इस संसारमें फिर किसी प्रकारका जन्म नहीं लेता। जो श्रीहरिके शयनकाल में व्रतपरायण होकर चौमासा व्यतीत करता है, वह अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है। जो भगवान् मधुसूदनके शयन करनेपर अयाचित अन्नका भोजन करता है, उसे अपने भाई बन्धुओंसे कभी वियोग नहीं होता। जो मानव ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक चौमासा व्यतीत करता है, वह श्रेष्ठ विमानपर बैठकर स्वेच्छासे स्वर्गलोक में जाता है। जो चौमासेभर नमकीन वस्तुओं एवं नमकको छोड़ देता है, उसके सभी पूर्तकर्म सफल होते हैं। जो चौमासेमें प्रतिदिन स्वाहान्त विष्णुसूक्तके मन्त्रों द्वारा तिल और चावलको आहुति देता है, वह कभी रोगी नहीं होता।

चातुर्मास्यमें प्रतिदिन स्नान करके जो भगवान् विष्णुकेआगे खड़ा हो 'पुरुषसूक्त का जप करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है । जो अपने हाथमें फल लेकर मौनभावसे भगवान् विष्णुकी एक सौ आठ परिक्रमा करता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता। जो अपनी शक्तिके अनुसार चौमासेमें - विशेषतः कार्तिकमासमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको मिष्टान्न भोजन कराता है, वह अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है ।

वर्षाके चार महीनोंतक नित्यप्रति वेदोंके स्वाध्यायसे जो भगवान् विष्णुकी आराधना करता है, वह सर्वदा विद्वान् होता है । जो चौमासेभर भगवान्के मन्दिरमें रात दिन नृत्य - गीत आदिका आयोजन करता है, वह गन्धर्वभावको प्राप्त होता है। यदि चार महीनोंतक नियमका पालन करना सम्भव न हो तो मात्र कार्तिकमासमें ही सब नियमोंका पालन करना चाहिये। जिसने कुछ उपयोगी वस्तुओंको चौमासेभर त्याग देनेका नियम लिया हो, उसे वे वस्तुएँ ब्राह्मणको दान करनी चाहिये। ऐसा करनेसे ही वह त्याग सफल होता है । जो मनुष्य नियम, व्रत अथवा जपके बिना ही चौमासा बिताता है, वह मूर्ख है ।

श्रावणमें कृष्णपक्षकी द्वितीयाको श्रवणनक्षत्र में प्रातः काल उठे । पापी, पतित और म्लेच्छ आदिसे वार्तालाप न करे । फिर दोपहरमें स्नान करके धुले वस्त्र पहनकर पवित्र हो जलशायी श्रीहरिके समीप जाकर इस मन्त्र उनका पूजन करे -
श्रीवत्सधारिञ्छ्रीकान्त श्रीधाम श्रीपतेऽव्यय । 
गार्हस्थ्यं मा प्रणाशं मे यातु धर्मार्थकामदम् ॥ 
पितरौ मा प्रणश्येतां मा प्रणश्यन्तु चाग्नयः । 
तथा कलत्रसम्बन्धो देव मा मे प्रणश्यतु । 
लक्ष्म्या त्वशून्यशयनं यथा ते देव सर्वदा ।
 शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथा जन्मनि जन्मनि ॥

'श्रीवत्सचिह्न धारण करनेवाले लक्ष्मीकान्त ! श्रीधाम ! श्रीपते ! अविनाशी परमेश्वर ! धर्म, अर्थ एवं काम देनेवाला मेरा गार्हस्थ्य आश्रम नष्ट न हो । मेरे माता-पिता नष्ट न हों, मेरे अग्रिहोत्र - गृहकी अग्नि कभी न बुझे। मेरा स्त्रीसे सम्बन्ध विच्छेद न हो । हे देव! जैसे आपका शयनगृह लक्ष्मीजीसे कभी शून्य नहीं होता, उसी प्रकार प्रत्येक जन्ममें मेरी भी शय्या धर्मपत्नीसे शून्य न रहे।' 1

ऐसा कहकर अर्घ्य दे तथा अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणकी पूजा करे । इसी प्रकार भाद्रपद, आश्विन और कार्तिकमासमें भी जलशायी जगदीश्वरका पूजन करे तथा नमकरहित अन्न भोजन करे। व्रत समाप्त होनेपर श्रेष्ठ ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक दान दे । जौ, धान्य, शय्या, वस्त्र तथा सुवर्ण दक्षिणामें दे । जो मनुष्य एकाग्रचित्त हो इस प्रकार - भलीभाँति व्रतका पालन करता है, उसके ऊपर जलशायी जगद्गुरु भगवान् विष्णु बहुत संतुष्ट होते हैं ।

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