महाभारत एक परिचय | भाग :- ०३ काल निर्णय

છબી
  महाभारत काल  दुनिया के महान धार्मिक-पौराणिक ग्रंथों में महाभारत काफी लोकप्रिय है. यह ऐसा महाकाव्य है, जो हजारों वर्षो के बाद भी अपना आकर्षण बनाये हुए है. यह काव्य रचना जितनी लौकिक है, उतनी ही अलौकिक भी. इसके जरिये जीवन-जगत, समाज-संबंध, प्रेम-द्वेष, आत्मा-परमात्मा के रहस्यों को समझा जा सकता है. शायद यही वजह है कि समय के बड़े अंतराल के बाद भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है. इसी महाभारत में श्रीकृष्ण के कर्म, अनुराग, युद्ध, रणनीति वगैरह के दर्शन भी मिलते हैं. अब तो श्रीभगवद् गीता को प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थानों में पढ़ाया जा रहा है. इसके घटनाक्रम और वृतांत यह जिज्ञासा पैदा करते रहे हैं कि इस काव्य का रचनाकाल क्या है. कोई इसे तीन हजार साल पुराना मानता है तो किसी की मान्यता है कि यह करीब 1400 ईपू या 950 ईपू पुरानी बात है. महाभारत के रचनाकाल पर बीते दिनों बिहार-झारखंड के मुख्य सचिव रहे विजय शंकर दुबे ने पटना के प्रतिष्ठित केपी जायसवाल शोध संस्थान में विशेष व्याख्यान श्रृंखला के तहत अपना लिखित व्याख्यान पेश किया. यह विषय इतना रोचक और दिलचस्प रहा है कि आज भी उसकी लोकप्रियता जस की तस बनी हुई है. इ

स्कन्दस्वामी , कार्तिकस्वामी (KARTIKEY SWAMI JAYANTI)

कार्तिकेय

शिव पार्वती के पुत्र एवं दक्षिण भारत मे मुरुगन के नाम से प्रसिद्ध देव


कार्तिकेय या मुरुगन (तमिल: முருகன்), एक लोकप्रिय हिन्दु देव हैं और इनके अधिकतर भक्त तमिल हिन्दू हैं। इनकी पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिल नाडु में की जाती है इसके अतिरिक्त विश्व में जहाँ कहीं भी तमिल निवासी/प्रवासी रहते हैं जैसे कि श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर आदि में भी यह पूजे जाते हैं। इनके छ: सबसे प्रसिद्ध मंदिर तमिल नाडु में स्थित हैं। तमिल इन्हें तमिल कडवुल यानि कि तमिलों के देवता कह कर संबोधित करते हैं। यह भारत के तमिल नाडु राज्य के रक्षक देव भी हैं।


सामान्य तथ्य कार्तिकेय, संबंध ...

कार्तिकेय जी भगवान शिव और भगवती पार्वती के पुत्र हैं तथा सदैव बालक रूप ही रहते हैं। परंतु उनके इस बालक स्वरूप का भी एक रहस्य है।


भगवान कार्तिकेय छ: बालकों के रूप में जन्मे थे तथा इनकी देखभाल कृतिका (सप्त ऋषि की पत्निया) ने की थी, इसीलिए उन्हें कार्तिकेय धातृ भी कहते हैं।


कार्तिकेय के जन्म की कथा

स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव के दिये वरदान के कारण अधर्मी राक्षस तारकासुर अत्यंत शक्तिशाली हो चुका था। वरदान के अनुसार केवल शिवपुत्र ही उसका वध कर सकता था। और इसी कारण वह तीनों लोकों में हाहाकार मचा रहा था। इसीलिए सारे देवता भगवान विष्णु के पास जा पहुँचे। भगवान विष्णु ने उन्हें सुझाव दिया की वे कैलाश जाकर भगवान शिव से पुत्र उत्पन्न करने की विनती करें। विष्णु की बात सुनकर समस्त देवगण जब कैलाश पहुंचे तब उन्हें पता चला कि शिवजी और माता पार्वती तो विवाह के पश्चात से ही देवदारु वन में एकांतवास के लिए जा चुके हैं। विवश व निराश देवता जब देवदारु वन जा पहुंचे तब उन्हें पता चला की शिवजी और माता पार्वती वन में एक गुफा में निवास कर रहे हैं। देवताओं ने शिवजी से मदद की गुहार लगाई किंतु कोई लाभ नहीं हुआ, भोलेभंडारी तो कामपाश में बंधकर अपनी अर्धांगिनी के साथ सम्भोग करने में रत थे। उनको जागृत करने के लिए अग्नि देव ने उनकी कामक्रीड़ा में विघ्न उत्पन्न करने की ठान ली। अग्निदेव जब गुफा के द्वार तक पहुंचे तब उन्होने देखा की शिव शक्ति कामवासना में लीन होकर सहवास में तल्लीन थे, किंतु अग्निदेव के आने की आहट सुनकर वे दोनों सावधान हो गए। सम्भोग के समय परपुरुष को समीप पाकर देवी पार्वती ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया। देवी का वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्द हो गया। कामक्रीड़ा में मग्न शिव जी ने जब अग्निदेव को देखा तब उन्होने भी सम्भोग क्रीड़ा त्यागकर अग्निदेव के समक्ष आना पड़ा। लेकिन इतने में कामातुर शिवजी का अनजाने में ही वीर्यपात हो गया। अग्निदेव ने उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण करके ग्रहण कर लिया व तारकासुर से बचाने के लिए उसे लेकर जाने लगे। किंतु उस वीर्य का ताप इतना अधिक था की अग्निदेव से भी सहन नहीं हुआ। इस कारण उन्होने उस अमोघ वीर्य को गंगादेवी को सौंप दिया। जब देवी गंगा उस दिव्य अंश को लेकर जाने लगी तब उसकी शक्ति से गंगा का पानी उबलने लगा। भयभीत गंगादेवी ने उस दिव्य अंश को शरवण वन में लाकर स्थापित कर दिया किंतु गंगाजल में बहते बहते वह दिव्य अंश छह भागों में विभाजित हो गया था। भगवान शिव के शरीर से उत्पन्न वीर्य के उन दिव्य अंशों से छह सुंदर व सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ। उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं की दृष्टि जब उन बालकों पर पडी तब उनके मन में उन बालकों के प्रति मातृत्व भाव जागा। और वो सब उन बालकों को लेकर उनको अपना स्तनपान कराने लगी। उसके पश्चात वे सब उन बालकोँ को लेकर कृतिकालोक चली गई व उनका पालन पोषण करने लगीं। जब इन सबके बारे में नारद जी ने शिव पार्वती को बताया तब वे दोनों अपने पुत्र से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे, व कृतिकालोक चल पड़े। जब माँ पार्वती ने अपने छह पुत्रों को देखा तब वो मातृत्व भाव से भावुक हो उठी, और उन्होने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगा लिया की वे छह शिशु एक ही शिशु बन गए जिसके छह शीश थे। तत्पश्चात शिव पार्वती ने कृतिकाओं को सारी कहानी सुनाई और अपने पुत्र को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं के द्वारा लालन पालन होने के कारण उस बालक का नाम कार्तिकेय पड़ गया। कार्तिकेय ने बड़ा होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया।


दक्षिण भारत में कार्तिकेय का आगमन


प्राचीन ग्रंथो के अनुसार एक बार ऋषि नारद मुनि एक फल लेकर कैलाश गए दोनों गणेश और कार्तिकेय मे फल को लेकर बहस हुई जिस कारण प्रतियोगिता (पृथ्वी के तीन चक्कर लगाने) आयोजित की गयी जिस अनुसार विजेता को फल मिलेगा । जहां मुरूगन ने अपने वाहन मयूर से यात्रा शुरू की वहीं गणेश जी ने अपने माँ और पिता के चक्कर लगाकर फल खा लिया जिस पर मुरूगन क्रोदित होकर कैलाश से दक्षिण भारत की ओर चले गए।


वर्णन


देव दानव युद्ध में देवो के सेनापति के रूप में। दक्षिण भारत में युवा और बाल्य रूप में पुजा जाता है। रामायण, महाभारत, तमिल संगम में वर्णन।


वरदान


कार्तिकेय को देवताओ से सदेव युवा रहने का वरदान प्राप्त था।


विविध


षण्मुख, द्विभुज, शक्तिघर, मयूरासीन देवसेनापति कुमार कार्तिक की आराधना दक्षिण भारत में बहुत प्रचलित हैं ये ब्रह्मपुत्री देवसेना-षष्टी देवी के पति होने के कारण सन्तान प्राप्ति की कामना से तो पूजे ही जाते हैं, इनको नैष्ठिक रूप से आराध्य मानने वाला सम्प्रदाय भी है।

तारकासुर के अत्याचार से पीड़ित देवताओं पर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने पार्वती जी का पाणिग्रहण किया। भगवान शंकर भोले बाबा ठहरे। उमा के प्रेम में वे एकान्तनिष्ठ हो गये। अग्निदेव सुरकार्य का स्मरण कराने वहाँ उज्ज्वल कपोत वेश से पहुँचे। उन अमोघ वीर्य का रेतस धारण कौन करे? भूमि, अग्नि, गंगादेवी सब क्रमश: उसे धारण करने में असमर्थ रहीं। अन्त में शरवण (कास-वन) में वह निक्षिप्त होकर तेजोमय बालक बना। कृत्तिकाओं ने उसे अपना पुत्र बनाना चाहा। बालक ने छ: मुख धारण कर छहों कृत्तिकाओं का स्तनपान किया। उसी से षण्मुख कार्तिकेय हुआ वह शम्भुपुत्र। देवताओं ने अपना सेनापतित्व उन्हें प्रदान किया। तारकासुर उनके हाथों मारा गया।

स्कन्द पुराण के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय (स्कन्द) ही हैं। समस्त भारतीय तीर्थों का उसमें माहात्म्य आ गया है। पुराणों में यह सबसे विशाल है।

स्वामी कार्तिकेय सेनाधिप हैं। सैन्यशक्ति की प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन इनकी कृपा से सम्पन्न होता है। ये इस शक्ति के अधिदेव हैं। धनुर्वेद पद इनकी एक संहिता का नाम मिलता है, पर ग्रन्थ प्राप्य नहीं है।

कार्तिकेय के नाम

संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार कार्तिकेय के निम्न नाम हैं:


1. कार्तिकेय

2. महासेन

3. शरजन्मा

4. षडानन

5. पार्वतीनन्दन

6. स्कन्द

7. सेनानी

8. अग्निभू

9. गुह

10. बाहुलेय

11. तारकजित्

12. विशाख

13. शिखिवाहन

14. शक्तिश्वर

15. कुमार

16. क्रौंचदारण

17॰ थिरुचनदूर मुर्गा

18 देवदेव

19 विश्वेश

20 योगेश्वर

21शिवात्मज

21आदिदेव

22विष्णु

23महासेन

24इश्वर

25परब्रह्म

26स्वामिनाथ

27अग्निभू

28वल्लिवल्लभ

29महारुद्र

30ज्ञानगम्य

31गुहा

32सर्वेश्वर

33प्रभु

34भुतेश

35शंकर

36शिव

36ब्रम्ह

परिवार

पिता - भगवान शिव

माता - भगवती पार्वती

भाई - गणेश (छोटे भाई)

बहन - अशोकसुन्दरी (छोटी बहन)

पत्नी - देवसेना (षष्ठी देवी,ब्रह्मा की मानस पुत्री या कुमारी) एवं वल्ली

वाहन - मोर (संस्कृत - शिखि)

बालपन में इनकी देखभाल कृतिका (सप्तर्षि की पत्नियाँ) ने की थी।


अस्त्र

माँ पार्वती द्वारा दी गयी उनकी शक्तियों से परिपूर्ण अस्त्र का नाम वेल है।


बातू गुफाएँ जो की मलेशिया के गोम्बैक जिले में स्थित एक चूना पत्थर की पहाड़ी है वहां, भगववान मुरुगन की विश्व में सर्वाधिक ऊंची प्रतिमा स्थित है जिसकी ऊंचाई 42.7 मीटर (140 फिट) है।


दक्षिण भारत के प्रसिद्ध कार्तिकेय मंदिर : थिरुथनी, पलानी मुरूगन , शिवा सुबरमनीय स्वामी, रत्नागिरी, कुमुरकन्दन, थिरूपोरुर्कंसवामी, स्वामीनाथस्वामी, थिरुपपरमकुनरम, पज़्हमुदिर्चोलाई, स्वामीमली, तिरुचेंदूर , मरुदमली, वेल्लिमलाई


स्कंद षष्ठी भगवान शिव के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय (भगवान स्कंद) की उपासना का दिन है. दक्षिण भारत में इस त्योहार को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. यहां लोग कार्तिकेय जी को मुरुगन नाम से पुकारते हैं. आज स्कंद षष्ठी मनाई जा रही हैं. कहा जाता है इस दिन भगवान कार्तिकेय की पूजा-अर्जना करने से जीवन के सभी संकट दूर हो जाते हैं. स्कंद पुराण के अनुसार, इस दिन उपवास रखने का विशेष महत्व बताया गया है. आइए जानते हैं इसके महत्व और पूजन विधि के बारे में..


धार्मिक कथाओं के अनुसार, स्कंद षष्ठी असुरों के नाश की खुशी में मनाया जाता है. इस दिन भगवान कार्तिकेय की पूजा-अर्चना करने से उनके भक्तों के कष्ट दूर होते हैं और उन्हें सुख-समृद्धि के वरदान की प्राप्ति होती है. हर साल आने वाले इस छह दिवसीय उत्सव में सभी भक्त बड़ी संख्या में भगवान कार्तिकेय के मंदिरों में इकट्ठा होते हैं और सच्चे मन से पूरे विधि-विधान के साथ उनकी आराधना करते हैं.


ऐसे करें पूजा


इस दिन श्रद्धालु स्कंद षष्ठी का उपवास करते हैं. व्रत करने वाले लोगों को भगवान मुरुगन का पाठ, कांता षष्ठी कवसम और सुब्रमणियम भुजंगम का पाठ करना चाहिए. भगवान मुरुगन के मंदिर में सुबह जाकर उनकी पूजा करने का विधान है. उपवास के दौरान कुछ भी न खाएं. आप दिन में सिर्फ एक बार भोजन या फलाहार कर सकते हैं. छह दिनों तक चलने वाले इस पर्व पर सभी दिन उपवास करना शुभ माना जाता है | छह दिनों तक रखा जाता है उपवास

दक्षिण भारत में कई लोग इस पर्व पर नारियल पानी पीकर भी छह दिनों तक उपवास करते हैं. इस दौरान व्रत करने वालों को झूठ बोलने, वाद-विवाद करने से बचना चाहिए. स्कंद षष्ठी पर 'ॐ तत्पुरुषाय विधमहे: महा सैन्या धीमहि तन्नो स्कंदा प्रचोदयात' का जाप करना बेहद शुभ माना गया है.

मास की षष्ठी तिथि को स्कंद षष्ठी मनायी जाती है। इस दिन व्रत रखने से संतान के कष्ट दूर होते हैं और व्यक्तियों में पायी जाने वाली तामसिक प्रवृत्तियों का नाश होता है। तो आइए स्कंद षष्ठी की महिमा पर चर्चा करते हैं।  


 


स्कंद षष्ठी का महत्व 


यह व्रत भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र स्कंद को समर्पित होने के कारण स्कंद षष्ठी के नाम से जाना जाता है। जैसे गणेश जी के लिए महीने की चतुर्थी के दिन पूजा–अर्चना की जाती है उसी प्रकार उनके बड़े भाई कार्तिकेय या स्कंद के लिए महीने की षष्ठी के लिए उपवास किया जाता है। उत्तर भारत में कार्तिकेय को गणेश का बड़ा भाई माना जाता है लेकिन दक्षिण भारत में कार्तिकेय गणेश जी के छोटे भाई माने जाते हैं। इसलिए हर महीने की षष्ठी को स्कंद षष्ठी मनायी जाती है। षष्ठी तिथि कार्तिकेय जी की होने के कारण इसे कौमारिकी भी कहा जाता है। दक्षिण भारत के साथ उत्तर भारत में भी यह पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। संतान के कष्टों को कम करने और अपने आस-पास की नकारत्मक ऊर्जा की समाप्ति में यह व्रत फायदेमंद होता है।


 


पौराणिक कथा  


ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि स्कंद षष्ठी के कारण प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो गया था। ऐसा माना जाता है कि भगवान शंकर के तेज से पैदा हुए स्कंद को 6 कृतिकाओं ने अपना दूध पिला कर पाला था। साथ ही स्कंद की उत्पत्ति अमावस्या की अग्नि से हुई थी। दक्षिण भारत में स्कंद मुरूगन के नाम से प्रसिद्ध हैं। स्कंदपुराण के उपदेष्टा कार्तिकेय हैं। यह पुराण और पुराणों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। कार्तिकेय को देवताओं ने सेनापति बनाया था और उन्होंने तारकासुर का वध किया था। 


 


व्रत करने का तरीका 


कार्तिकेय की पूजा दीयों, गहनों, कपड़ों और खिलौनों से की जाती है। यह शक्ति, ऊर्जा और युद्ध के प्रतीक हैं। संतान के कष्टों को कम करने और उसे अनंत सुख की प्राप्ति के लिए भगवान कार्तिकेय की पूजा की जाती है। साथ ही किसी प्रकार के विवाद और कलह को समाप्त करने में स्कंद षष्ठी का व्रत विशेष फलदायी है। मंदिर में भगवान कार्तिकेय की विधिवत पूजा करें। उन्हें बादाम, काजल और नारियल से बनीं मिठाइयां चढ़ाएं। इसके अलावा बरगद के पत्ते और नीले फूल चढ़ा कर भगवान कार्तिकेय की श्रद्धा पूर्वक पूजा करें। 


 


व्रत करने पर करें परहेज


इस व्रत को करने वाले भक्त को अहंकार, काम और क्रोध से मुक्ति मिलती है। जो भी साधक इस दिन उपवास रखकर पूजा करता है उसे मांस, शराब, लहसुन और प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि इस भोग पदार्थों के सेवन से तामसिक प्रवृत्ति जागृति हो जाती है जो उपासक के विवेक को नष्ट कर देता है। ऐसी मान्यता है कि स्कंद षष्ठी के पूजन से च्यवन ऋषि को आंखी में रोशनी मिली थी। 


 


स्कंद षष्ठी को होता है शुभ मुहूर्त 


हिन्दू पंचांग के अनुसार स्कंद षष्ठी का दिन खास होता है। इस दिन अच्छा मुहूर्त होने के कारण आप किसी भी नए काम की शुरूआत कर सकते हैं। इसके अलावा नया वाहन खरीदना हो या किसी व्यवसाय की शुरूआत करनी हो सभी कामों के लिए यह दिन लाभदायी सिद्ध होता है।


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